Threads of time...

Thursday, July 31, 2008

काश

काश की हमारे लिए भी कोई ज़माने को दुश्मन बनाता
कभी सिरहानों में चुप चुप रोता और हमको भी रुलाता
सामने जब आता तो ज्युओं पुरा मधुबन ही खिल खिल जाता
काश होता कोई कहीं जो हमको भी बेबाक अपने सिने से लगता
पौन्छ्ता उतराते आंसू इन् पलकों से और हौटों पे हँसी सजाता
धुन्दला ही सही पर वोह साया कभी तो कहीं दूर से आता नजर आता
जो था कल तक पराया वोह आज हमको अपनों से भी बड़कर अपनाता
जो मिल जाता वोह कहीं तो इस मन मन्दिर में खुदा का रुतबा पाता !

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posted by Nomade at 9:50 PM

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