Threads of time...

Wednesday, December 19, 2007

अस्तित्व

दुआएं भी अब हम मांग कर लाते हैं
जिंदगी का सबब हम कुछ इस तरह उठाते हैं
हर कदम पर साथ साथ जो चलने चले थे
आज वोही बेबाक हो हमको पराया बताते हैं
न रातों में सोये न दिनो में जागे जिनके लिए
ख्वाबों से सपने और लैब पर अशिस्हें उनके लिए
रहते थे बेचैन जो हर एक पल मिलने के लिए
आज शर्मिंदा हैं वह हमारा नाम लेने को भी
हम अटूट पर्वतों की तरह अपने वादों पर खडे रह गए
वह आये बहार बन कर और पतझर बन चले गए
क्या कहें किसको कहें और क्युओं कर कहें हम हाले दिल
जाना था उनको, गए वह,हमारा अस्तित्व भी साथ ले !
posted by Nomade at 10:53 PM

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