Threads of time...
Wednesday, December 12, 2007
लोग..
लोग दूरियों पर दूरियां बदते हैं
और अपने को हमारा दोस्त बताते हैं
चाहते तों हैं दुख-सुख बांटना
पर हम-शरीक होने से घबराते हैं
फूलों का रखते हैं बहूत शौक
मगर काँटों से घबराते हैं
नहीं है इल्म हमारे नासूरों का
दुनिया भर की दवा बताते हैं
रखे बेशक तमना गुल-ओ-बाहर की
कीकर के पोधे क्युओं उगाते हैं
तकदीर बदलना इतना आसान नहीं
क्युओं शीशे को पत्थर से टकराते !
और अपने को हमारा दोस्त बताते हैं
चाहते तों हैं दुख-सुख बांटना
पर हम-शरीक होने से घबराते हैं
फूलों का रखते हैं बहूत शौक
मगर काँटों से घबराते हैं
नहीं है इल्म हमारे नासूरों का
दुनिया भर की दवा बताते हैं
रखे बेशक तमना गुल-ओ-बाहर की
कीकर के पोधे क्युओं उगाते हैं
तकदीर बदलना इतना आसान नहीं
क्युओं शीशे को पत्थर से टकराते !
Labels: हम-शरीक
posted by Nomade at 2:56 PM
1 Comments:
sach mein... log bahut dukhi karte hai apko....but i wanted to be your ham-shareek
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